Friday, May 21, 2010

एक शाम गंगा का किनारा

गंगा के उस घाट की सीढ़ियों पर
वे पानी में पाँव डाले बैठे थे
इससे फर्क नहीं पड़ता
कि वह घाट ऋषिकेश का था या हरिद्वार का
बनारस का था या इलाहबाद का

खास बात यह थी कि
आसमान के चाँद का अक्स उस पानी में हिल रहा था
और उसकी चाँदनी उस शाम उसकी पिण्डलियों से फूट रही थी
पानी उस चाँदनी को छूता हुआ उसकी ओर बहा आता था
इस तरह आज धरती हल्की सी उसकी ओर झुकी थी
जिसके लिए वह धरती का शुक्रगुज़ार था
उस हल्के से ढलान में बैठकर उसका मन
ऊन के उस गोले की तरह लुढ़क जाने को कर रहा था
जिसे लुढ़कते चले जाने के बावजूद
दूसरी ओर दो हाथ थामे रहते हैं हरदम

और इस तरह मन ही मन लुढ़कता हुआ
वह अपने ही वजन से हल्का हुआ जाता था

(प्रतिलिपि में प्रकाशित)

Sunday, May 16, 2010

समंदर के सपनों में चाँद

इतनी दूर से चलकर आई हो
मेरी नींद में

आओ बैठो
स्पर्श के इस गुलमोहर के नीचे
तुम्हारे लिए सपनों की दरी बिछाई है
जूड़े की पिन ढीली करो
और जरा आराम से बैठो

ऐसा लग रहा है
जैसे आज समंदर के सपनों में
चाँद उससे मिलने आया है

वो रंग

होली की रात
चाँद उतरा
ऐन बाखर के नीम के पार
फिर लटक कर झूला
उसकी सबसे ऊँची डाल से
पास ही एक मोर बैठा था
बहुत शर्माया सा
बहुत से रंग लेकर आया साथ
चाँद कुछ मूड में था

रंगों के उस खेल में
फिर खूब रँगा मोर को
मोर ने फिर चाँद को
उस दिन ऐसी यारी हुई
कि मोर ने बनवा लिए चाँद अपने पंखों पर
और चाँद ने गुदवा लिया मोर
अपने ही गाल पर

वो रंग ऐसा चढ़ा कि
अब छूटता नहीं
हर पूनम को याद कर होली
चाँद निकल पड़ता है नहाने समंदर की ओर
और मल मलकर ऐसा नहाना शुरू करता है
कि खुद ही घिसता जाता है
और बारिशों में हर बादल को देख
मोर पुकार पुकार कर कहता है
मेह आओ मेह आओ
मेरा रंग छुड़ाओ
मगर वो रंग है कि
अब छूटता ही नहीं

ऐ मेरी दोस्त !

छुअन में वो गर्माहट लिए
जहाँ से प्यार शुरू होता है

ऐ मेरी दोस्त !
तुम्हारी हथेलियाँ
अब भी महसूस होती हैं
अपनी गर्दन पर

तुम्हारे जूड़े का वो जिद्दी बाल
जो मेरे कंधे पर उतर आया था

ठीक वैसे ही
डायरी में रखा है
बचपन में किताबों में
जैसे पंख रखे रहते थे

इसे दोस्ती कहो या प्यार
वो पंख सा कोमल तुम्हारा बाल
तुम्हारी जूड़े की पिन सा
अब भी खुबा है
मुझमें