Thursday, May 19, 2011

एक कहानी आसमान की

आसमान एक बच्चा है
और चाँद उसके मुँह में घुलता हुआ बताशा
वह घुलता जाता है मुँह में हर रोज
और टपकती जाती है लार
फैलती जाती है चाँदनी
घुलते-घुलते एक दिन बीत जाता है बताशा
आसमान फिर मचलता है
रोता हुआ पाँव पटकता है
उसकी माँ रात
फिर कहीं ढूँढ़ती है बताशा इधर उधर कोनों-कुचारों में,
जंगल के गुच्छों में, नदी के नीचे, पहाड़ों के पीछे,
समंदर के डिब्बे में आखिर उसे मिल ही जाता है
तारों भरी थैली में पड़ा एक और बताशा चाँद
जिसे पिछली बार रख दिया था सँभालकर इसीलिए
कि पता था फिर मचलेगा आसमान बताशे के लिए
उसकी एक-एक हरकत से वाकिफ है
लाकर रख देती है मुँह में बताशा
इस तरह कुछ रोज फिर चुप और शांत रहता है आसमान

हैलो... !

तुम...!
तुम इस पूनम की रात में कहाँ हो मेरी जान!
चाँद की देगची में चढ़ा चाय का पानी
अब तो भाप बनकर उड़ने लगा है
इस पर ढँकी आसमान की तश्तरी पर
भाप की बूँदों के सितारे उभर आए हैं
मैं उन पर अपनी उँगली फिराता हुआ
तुम्हारा अक्स उकेरे जा रहा हूँ