Monday, December 26, 2011

अकेली स्त्री के लिए मुहब्बत का एक गीत

नींद के हर मैच में रात को हराकर अल सुबह उठ जाती हो
फिर
बच्चे का स्कूल, ऑफिस, कंप्‍यूटर, मजदूरी, फीस, बिल, सब्जी -मंडी, दूध, किराना, किराया
जैसे अर्थों से गुजरती हुई
एक लुहार बनकर
अपने दिन को मेहनत से
रचती हो कविता की तरह

हर शाम एक आखिरी सोनेट होती है
जिसे जोड़ते हुए इस तरफ चली आती हो
अपने लिए कुछ समय बीनती हुई इन घने पेड़ों के नीचे

उँगलियों में सिगरेट फँसाए
ना जाने अपना कौनसा बिछुड़ा प्यार याद करती
चहल कदमी करती हो
इस तरह तुम्हारे लाल जूतों के निशान उस जगह सड़क के दिल पर उभर आते हैं

इन पेड़ो की डालियाँ ना जाने किस शक में झुकी चली आती हैं
उन निशानों की निशानदेही करने
इन्हे नहीं पता कि कोने के लैंप पोस्ट की लाइट के टुकड़े से
खुद इनकी मुहब्बत के निशां बिखर गए हैं जमीं पर छायाएँ बनकर

आसमान के सितारों को रश्क है तुम्हारी सिगरेट में चमकते सितारे से
वे खुद तुम्हारी उँगलियों मे आकर फँस जाने का ख्वाब देखते हैं
ये सरकंडे अपने सफेद फूलों के साथ
सिर्फ स्वागत में लगी झंडियों की तरह तुम्हारे रास्ते में खड़े होने के सिवा कुछ नहीं कर सकते थे
और मैं तुम्हारे इस अकेलेपन में सिर्फ एक गीत लिख सकता था मुहब्ब्त का

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