Monday, June 25, 2012

तुम यहाँ रहो साम्राग्यी

आओ
इस रात को एक सफर की तरह तय करके आओ
और सीधी मेरे सपनों के पानी में उतर जाओ
एक मछली
आँखों में झिलमिलाती अपनी कोमलता से भरी

यह कैसा कमाल है तुम्हारे होने का
कि भाषा खुद तुम्हारी गंध बनकर चली आती है मुझ तक
मैं इसका कातिल नहीं हो सकता

या अल्लाह मुझे माफ करना

सपनों के बाहर मृत्यु निश्चित है
तुम यहाँ रहो यहाँ साम्राग्यी
यह मेरी नींद का महासागर है

2 comments:

  1. सपनों को तोड़ो मत, बस हृदय समाओ..

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  2. यह कैसा कमाल है तुम्हारे होने का
    कि भाषा खुद तुम्हारी गंध बनकर चली आती है मुझ तक
    मैं इसका कातिल नहीं हो सकता

    बहुत खूबसूरत

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